संस्कृत
दुनिया की प्राचीनतम वैज्ञानिक भाषाओं में से एक है। संस्कृत की महत्ता को समझते
हुए ही दुनिया के तमाम विद्वान काशी में प्राच्य विद्या की साधना कर चुके हैं।
इनमें से प्रमुख नाम अंग्रेज विद्वान आरटीएच ग्रिफिथ का भी है। ब्रिटिश शासनकाल
में अंग्रेजों को संस्कृत की महत्ता समझाने के लिए ग्रिफिथ ने संपूर्णानंद संस्कृत
विवि में ऋग्वेद, यजुर्वेद,
सामवेद व अथर्ववेद के साथ वाल्मीकि रामायण और महाकवि कालिदास
रचित कुमार संभव का सबसे पहले अंग्रेजी में अनुवाद किया था। वर्ष 1870 के आसपास जिस स्थल पर उन्होंने वाल्मीकि रामायण का अंग्रेजी में अनुवाद
किया था। स्मारक के रूप में वह स्थल आज भी विद्यमान है। जहां खुले आसमान के नीचे
पत्थर पर उकेरी गई खुली किताब लोगों को बरबस ग्रिफिथ की याद दिलाती है। पत्थर पर
उकेरी किताब की चमक अब धूमिल है। स्मारक उपेक्षा का शिकार है।
डंकन
की पहल पर संस्कृत केंद्र
संस्कृत की महत्ता को अंग्रेज अच्छी तरह समझते थे। यही कारण था कि बनारस के
रेजिडेंट जोनाथन डंकन ने अंग्रेजी शासन से यहां पर संस्कृत अध्ययन केंद्र खोलने की
अनुमति मांगी थी। इसके बाद ब्रिटिश शासन ने वर्ष 1791 में बनारस संस्कृत पाठशाला स्थापित की। वर्ष 1844
में नाम काशिक राजकीय संस्कृत कालेज हुआ। जिसे वर्ष 1847
में क्वींस कालेज किया गया। स्वतंत्रता के बाद वर्ष 1958
में इसे राज्य विश्वविद्यालय का दर्जा मिला। ऐसे में इसका
नाम फिर बदलकर वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय कर दिया गया। वहीं वर्ष 1974
में इसका नाम फिर बदल कर संपूर्णानंद संस्कृत विवि किया
गया।
226 वर्ष पुराना विवि का इतिहास
संस्कृत अध्ययन केंद्र खुलने से लेकर अब तक विश्वविद्यालय का इतिहास 226
वर्ष पुराना है। जे. म्योर संस्कृत कालेज के पहले प्राचार्य
थे। जबकि जेआर वैलेंटाइन दूसरे व आरटीएच ग्रिफिथ तीसरे प्राचार्य रहे। उच्चकोटि के
संस्कृत विद्वान ग्रिफिथ वर्ष 1861 से 1876 तक बनारस संस्कृत कालेज के प्राचार्य रहे। उन्होंने संस्कृत
के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया। संस्कृत के कई महत्वपूर्ण ग्रंथों का
उन्होंने अंग्रेजी में अनुवाद किया, ताकि अंग्रेज संस्कृत की महत्ता समझ सकें। 1830
में यहा संस्कृत के साथ अंग्रेजी की पढ़ाई भी शुरू हुई। 1857
से स्नातकोत्तर की कक्षाएं व 1880
से लिखित परीक्षा प्रणाली शुरू हुई थी।